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Supreme Court: WhatsApp तक पहुंच मौलिक अधिकार नहीं, Arattai ऐप का सुझाव |
Supreme Court ने कहा – WhatsApp तक पहुंच मौलिक अधिकार नहीं, Arattai ऐप का करें इस्तेमाल
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को एक महिला डॉक्टर की याचिका खारिज करते हुए साफ कहा कि WhatsApp तक पहुंच (Access) को मौलिक अधिकार (Fundamental Right) नहीं माना जा सकता। अदालत ने कहा कि WhatsApp एक निजी प्लेटफॉर्म है और इसका इस्तेमाल करने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं बनता।
अदालत ने साथ ही सुझाव दिया कि याचिकाकर्ता चाहे तो Zoho कंपनी के “Arattai” ऐप जैसे भारतीय विकल्पों का इस्तेमाल कर सकती हैं।
मामला क्या था
याचिका दायर करने वाली महिला डॉक्टर ने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया था कि उनका WhatsApp अकाउंट बहाल किया जाए, जिसे कंपनी ने बिना किसी स्पष्ट कारण के ब्लॉक कर दिया था।
डॉक्टर का कहना था कि वह WhatsApp का उपयोग मरीजों से संपर्क, परामर्श और निजी बातचीत के लिए करती हैं, और अकाउंट ब्लॉक होने से उनका पेशेवर जीवन प्रभावित हुआ है।
अदालत ने क्या कहा
मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और संदीप मेहता की पीठ ने की।
सुनवाई के दौरान अदालत ने पूछा,
“आपका कौन-सा मौलिक अधिकार है कि आपको WhatsApp इस्तेमाल करने का हक़ मिले?”
जस्टिस नाथ ने कहा कि WhatsApp एक निजी कंपनी द्वारा संचालित सेवा है, जिसका उपयोग उसकी अपनी नीतियों (Terms and Conditions) के अधीन होता है। इसलिए इसे मौलिक अधिकार नहीं माना जा सकता।
पीठ ने यह भी कहा कि अगर किसी व्यक्ति को ऐप से प्रतिबंध या अकाउंट ब्लॉक होने पर आपत्ति है, तो वह संबंधित कंपनी के नियमों या सिविल कोर्ट के माध्यम से राहत मांग सकता है, लेकिन इसे संविधान के अनुच्छेदों के तहत मौलिक अधिकार नहीं बताया जा सकता।
Arattai ऐप का सुझाव
सुनवाई के दौरान अदालत ने याचिकाकर्ता से कहा कि “अगर WhatsApp नहीं चला पा रही हैं, तो **‘Arattai’ ऐप का इस्तेमाल करें।”
Arattai भारत की टेक कंपनी Zoho Corporation द्वारा बनाया गया एक देशी चैटिंग ऐप है, जो मैसेजिंग, ऑडियो और वीडियो कॉलिंग की सुविधा देता है। यह “Make in India” पहल के तहत विकसित किया गया था और डेटा सुरक्षा पर विशेष ध्यान देता है।
सुप्रीम कोर्ट का यह सुझाव सोशल मीडिया पर भी चर्चा का विषय बना, क्योंकि यह पहली बार है जब अदालत ने किसी विदेशी ऐप की जगह भारतीय विकल्प का ज़िक्र किया है।
निजी प्लेटफॉर्म और मौलिक अधिकार
यह फैसला डिजिटल युग में एक अहम मिसाल बन सकता है।
अदालत ने स्पष्ट किया कि निजी डिजिटल सेवाएं, चाहे कितनी भी लोकप्रिय क्यों न हों, संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के दायरे में नहीं आतीं।
कानूनी विशेषज्ञों के मुताबिक, यह निर्णय बताता है कि किसी निजी ऐप या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म तक पहुंच व्यक्ति का “संवैधानिक अधिकार” नहीं बल्कि एक अनुबंध (Contract) के तहत दी गई सुविधा है।
विशेषज्ञों की राय
कानून विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की जिम्मेदारी और यूजर्स के अधिकारों को लेकर आगे की बहस को जन्म देगा।
दिल्ली हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा,
“यह फैसला दिखाता है कि भारत में डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को अभी भी निजी सेवाओं की तरह देखा जा रहा है। अगर उन्हें सार्वजनिक महत्व की सेवा बनना है, तो सरकार को इसके लिए नियामक ढांचा तैयार करना होगा।”
डेटा गोपनीयता पर सवाल
हालांकि अदालत के इस रुख से डेटा प्राइवेसी और डिजिटल निर्भरता पर नए सवाल खड़े हुए हैं।
आज के दौर में डॉक्टर, वकील, पत्रकार और कारोबारी WhatsApp जैसे प्लेटफॉर्म पर निर्भर रहते हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भविष्य में निजी डिजिटल सेवाओं को भी कुछ बुनियादी उपभोक्ता अधिकारों के तहत लाया जाना चाहिए?
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया है कि WhatsApp या किसी अन्य निजी डिजिटल सेवा तक पहुंच मौलिक अधिकार नहीं है।
अगर किसी उपयोगकर्ता का अकाउंट ब्लॉक होता है, तो वह कंपनी की नीतियों या सिविल उपायों का सहारा ले सकता है — न कि संविधान की धारा के तहत राहत मांग सकता है।
अदालत का “Arattai” ऐप का सुझाव डिजिटल भारत के लिए एक सकारात्मक संकेत माना जा रहा है, जो भारतीय तकनीकी विकल्पों को प्रोत्साहित करता है।
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